शौचालय (2013)

 आज जब रामविलास शर्मा की रचना ' धूल ' और काका कालेलकर का 'कीचड़ का काव्य पढ़ा' , तो मैंने भी सोचा की यदि अभी मुझे कुछ ऐसा लिखना हो, तो वो क्या होगा जिसे मैं मेरे लेख का विषय बना सकूं । मन में आया की एक सूची बनाऊं जिसमें ऐसी चीजें हो जिनसे घिन आए।

इस सूची में सबसे अव्वल था ' शौचालय ' । इसका नाम सुनते ही ना जाने क्यूं शक्ल बदल जाती है। स्वयं ही छी निकल जाता है। कई लोगो को इसका नाम सुनते ही उल्टी आने लगती है किंतु वह उल्टी भी हम इसी शौचालय में करते हैं। 

हम शौचालय अपने शरीर कि शुद्धि करने जाते हैं और जो आनन्द शौचालय से बाहर निकलने पर आता है, आहा! वह कितना आरामदायक और अमूल्य होता है। परंतु फिर भी इसे एक गंदे स्थान के तौर पर देखा जाता है। कई बार लगता है कि ये शौचालय ही तो है जो हमारा सचा मित्र है। 

हम इससे रोज़ मिलते हैं, कई लोग सुबह और शाम मिलना पसंद करते और कई लोग कभी भी आ धमकते हैं। विद्यार्थी जीवन में तो शौचालय का स्थान अतुल्य है, यदि मां ने डांट दिया तो शौचालय जाओ और दरवाज़ा बन्द करलो। फिर चाहे बाहर दिवाली ही क्यूं न चल रही हो अंदर का वातावरण बिल्कुल शांत । यदि परीक्षा में कम अंक हो तो उसे गायब करने का सबसे सरल उपाय ? शौचालय। और उस एक बटन (फ्लश) को दबाते ही सब डीलीट। घर का शौचालय तो हमारे सिंहासन समान है। लेकिन दूसरे शौचालय भी कम नहीं। 

उधारहन के लिए अपने स्कूल का शौचालय ही देखलो। वहां की दीवारें , दीवारें कम किसी कॉपी का आखिरी पन्ना ज़्यादा लगती हैं। कोई अपनी बरहास निकालता है तो कोई अपनी कलाकारी दिखता है। कोई अपना तो कोई अपने प्रेमी का नाम। आखिर इससे अच्छा मित्र कहां मिलेगा ? जो आपकी बात भी सुने , ना कोई टिप्पणी करे । और उन बातो को अपने तक ही सीमित रखे। 

एडिट 2020 : आज इस शौचालय पे एक फिल्म भी आ चुकी है टॉयलेट: प्रेमकथा, सरकार द्वारा कई अभियान शुरू किए जा चुके हैं (निर्मल भारत अभियान , स्वच्छ भारत अभियान) । इस शौचालय का महत्व हमारे जीवन में सदा ही अन कहा और अनविवृत रहेगा । शायद इसीलिए मैंने इसे अपने पहले लेख के तौर पर चुना।


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